Sunday, August 27, 2023

घमंड न कर ऐ बंदे



गर खुद को बहुत बड़ा कलाकार मान बैठा है
तो ये जान लो ये करिश्मा उसका है जिनके हाथ नहीं।
घमंड न करना कभी इतराना नहीं बहुत
बहुत कलाकार बैठे है इस जहां तेरे अलावा भी।
_Infinity 

Sunday, March 12, 2023

चेहरों की सच्चाई

तू अखबार पढ़ता है मैं चेहरों को पढ़ाता हूँ 
सुना है अखबारों को छापने में महंगी स्याही लगती है.
__Infinity

Monday, November 29, 2021

सब ले लो

 तुम सब ले लो मुझसे 
मेरा कुछ भी तो नहीं है 
मैं खाली हाथ ही तो आए था 
कुछ नहीं था मेरे पास 
कुछ नहीं होगा जब जाऊंगा 
शायद तुम ले के जा सको 
तो ले लो न जो चाहिए मुझसे 
मुझे बस एक भरोषा दे दो 

__Infinity

दुनियाँ सिर्फ़ ये देखती है कि मलाई कितनी मोटी है ये नहीं कि दूध कितना जला इसके लिए।

दुनियाँ सिर्फ़ ये देखती है कि मलाई कितनी मोटी है ये नहीं कि दूध कितना जला इसके लिए।

Monday, February 8, 2021

मन है या मौसम

कभी कुछ भी अच्छा लगता है

कभी कुछ भी नहीं

ये मन है या मौसम 

मालूम नहीं


__Infinity

Saturday, October 24, 2020

गाँव वाली सड़क

ये सड़क है वही
शहर की तरफ गया था कभी
मुड़ा नही फिर
गाँव की तरफ
#Infinity

Saturday, October 3, 2020

निष्ठुर ख्वाब गरीबी के

मेरी दुनिया वहीं 

कहीं कोने में ही पड़ी है 

मेरे सपनों का मोल 

निर्धारित है मेरे पैदाइश के पहले से ही

बिक गए कौड़ियों के भाव सब पहली ही खेप में

अकीदतमंद है सिर्फ मेरी मेहनत 

काफिर है सारे मेरे ख्वाब 

बस कत्ल के लायक

मेरी औकाद 

मेरे फटे कपड़े की दहलीज नहीं लांघती कभी

पूरी कोशिश से भी

मेहनत मेरी चमक साहब के चेहरे की

बनाये थे ताजमहल साहब

सारी दुनिया जानती है यही।

#Infinity

गिद्धों की राजनीति


अभी गिद्ध बैठा है
आ के लाश के पास
नोचेंगा जरूर
अभी बस इंतज़ार में है
भीड़ छटने के

#Infinity

Wednesday, September 9, 2020

कामदार


मेरी दुनिया वहीं कहीं कोने में ही पड़ी है
मेरे सपनों का मोल पैदा होने से पहले से निर्धारित थे
बिक गए कौड़ियों के भाव
अकीदतमंद है मेरी मेहनत काफिर है सपने मेरे
बस कत्ल के लायक
मेरी औकाद मेरे फाटे कपड़े की दहलीज नहीं लांघ पाती
साहेब बनाये थे ताजमहल सारी दुनिया यही कहती है।
#Infinity

Saturday, September 5, 2020

बेकसूर गुनाहगार


बेकसूर गुनाहगार 

मैं खुश हूं तो ग़म किसको है
क्यों तेरे अगोशे-शुकून का गुनाहगार हूँ मैं।
#Infinity

Friday, July 31, 2020

शुशांत शांत हो गया


शुशांत शांत हो गया
लटक गया कुनबापरस्ती के रस्सी से
दोस्त थी उसकी कोई
जिसका प्यार फरेब की चाशनी में डूबा जलेबी निकाला शायद
मेधावी था शायद बुद्ध की बुद्धि थी उसमें
तभी हल्के सोंच वालो के बीच जी न पाया
बड़ा अभिनेता बनाता शायद
दिल मे छुड़ी छुपाये
बहरूपीओ के शहर को अलविदा कह चल दिया
अपने चांद पर वाली जमी पे आशियाना बनाने
शुशांत शांत हो गया।

#Infinity

Sunday, May 17, 2020

हमारा हक नही।

मेरे रहनुमा ने निकल दिए अपने दहलीज से
मजदूर है हम गरीब
मकान बनाते है
घर पे हमारा हक नहीं।

#Infinity

Thursday, May 14, 2020

सकारात्मकता

हर जगह नकारात्मकता है बिखरा हुआ
हंसो जैसे चुग लीजिये सकारात्मकता मोती की तरह।

#इंफिनिटी

Monday, May 11, 2020

एक मजूर की मजबूर जिंदगी


मजदूरों गरीबो हक क्या 

बस यही

कि वोट भी दे और जान भी।

#Infinity

मंजिल कहाँ



लोग कहते थे कि ये सड़क जाती है कही
कब  से खड़ा हूँ यहाँ
कि यही का यही हूँ अब भी.

गाँव



गाँव कहता है सबसे, लौट आओ दुबारा
आओ परदेश छोड़े, घर के ईटों को जोड़ें
आओ परदेश छोड़ें, चलें गाँव फ़िर से
माँ क स्नेह मिलेगा, और दुलार बहन का
मिलेगी बगल की शादियों की खुशियाँ.
किसी अपने को अब एक कन्धा मिलेगा
फ़िर खेलेंगे कबड्डी
अमिया तोड़गें, और खायेंगे जामुन
फ़िर से कंचे की खन-खन गूँजा करेगी,
लुक्का-छुप्पी चलेगी, नहायेंगी नदियाँ.
बाबा के कन्धे को, चाहिये अब सहारा,
दादी की कहानियों को कान मिलेगा.
अपने खेतों की मीठी खुशबू मिलेगी
दौड़ेंगे भागेंगे, तेज बहुत तेज फ़िर से,
पतंगे उड़ेंगी, चलेंगी गुलेलें.
बहन बाँधेगी, राखी चहक के
चाची फ़िर गायेगी गीतों कि लड़ियाँ
कन्धे पे घूमेंगे चाचा के फ़िर से,
अब कोई यहाँ न गैर होगा.
चलो आओ, गाँव अकेला पड़ा है,
नीरस, अकड़ा और मरा - सा पड़ा है,
चल के फ़िर से उसे जिंदा करें हम,
अपने लोगों की टूटी खुशियाँ लौटाए
अपनी खुशियों के घुटते दम को फ़िर से
निर्गुण, निर्दोष शुरुआत दे आएँ
चलो आओ फ़िर हम
एक बार गाँव हो आ
बहुत दूर से पत्थर घसीट
कर लाया हूँ
न जाने फिर मै यहाँ
किस फ़िराक में आया हूँ
रास्ते फिर मिल जाएंगे
मंजिले खुद चली आएगी
किसी सागर कि तलाश में
फिर लौट आया हूँ

एक परिचयः मेरे बाद (पंडित श्री योगेन्द्र दि्वेदी (1923 - 28 फरबरी, 2011))


भूमि पर मुझको लिटाना
जब कभी तो इस तरह कि
पीठ पर आकाश……..
मेरे होंठ मिट्टी से जुडे हों
लोग पूछें तो बता देना
सिर्फ देना जानता था
बसेगी वहीं मूर्ति इस जमीन में
हाथ दो पारस थे जिसके
मिट्टी को कंचन बनाना चाहता था
जन्म से ही धर्म जीता था मनुज का
लोग पूछें तो बता देना
किसी से कुछ माँगा
लोग पूछें तो बता देना यहाँ पर
नींद में घायल सिपाही सो गया है
जो उडाने का बडा शौकीन था उजले कबूतर
और झडता था महज आशीष मंगल
लौह तलहथियाँ से जिनके
सदानीरा नदी कोई बह रही थी
नाडियों में स्वयं के भीतर नसों में
नाचती थी वर्ष नब्बे तक
कुछ पसीने कुछ क्षमा
कुछ अनसुनेपन की नदी
के साथ बहता था नशा बस जिन्दगी का
राग छलछल नेह छलछल
छोह और निर्मोह छलछल
अब नहीं है वह नदी
सरस्वती कोई हुई है फिर अलोपित
या समंदर हो गई है बूंद कोई
अब बसा है एक भोला सा
वही विज्ञानी यहाँ पर जिंदगी का
वाड्ग्मय संस्कृत का पीआ था जिसने
लोग आगत जानने आते रहे थे पास
साख ना तोडी कभी ना झूठ बोला
कबीरा चादर का कभी ना साथ छोडा
ऐसे कई असंभव साधता था जिन्दगी भर 
चाँद छूने की कला भायी जिसको
एक सहारा रेत में बरगद खडा था
चुप अकेला पँक्षियों की ओढकर चादर हरा था
हर महीना वह भरा था
इक घडे सा अर्घ्य था
अभिषेक का जीवन सफर में
रामनामी को पिरो रूद्राक्ष में
पदरज उढाए मुठ्ठियों में
पत्थरों में प्राण का जादू जगाना चाहता था।
हर उपेक्षित आदमी का वह सगा था
लडकियों कि जिंदगी सजती जहाँ थी
उस जमीं पर वह अकेला ही सभा था उम्र भर
आगन्तुकों को बाटताँ था थाल अपनी
हो गया आकाश निस्सीम आयतन है
बस कोई बहती नदी थी
जिसने गोमुख को देखा
पहचाना पूर्वज पर्वतों को
सारे गोमुख गंगा पर्वतों को
है हमारा नमन शत् शत्
नमन शत् शत्
अनथकी इस नदी के राग को
गा रही है कई घरों में आग
उस आदमी का बह रहा है कई घरों में राग
उस आदमी का जिस तरह बहती नदी है जेठ में।
 
-----------    विनोद (डा.रामेशवर दि्वेदी)